नटखटपन बचपन के……..
तीन माह में तीन विद्यालयों को अलविदा कह चुके विजय को पढ़ाने का वैसे तो कोई चारा बचा नहीं था। पर अभिभावक का जिम्मा यदि नाना के कंधों पर हो, तो हार मानकर चुप बैठ जाना भी इतना आसान कहाँ था? क्योंकि एक नाना के लिए अपने नवासे की तरक्की खुद के दामाद की तरक्की से भी ज्यादा प्यारी लगती है, और हो भी क्यों न गाँव में एक कहावत आम है कि मूलधन से ब्याज ज्यादा प्यारा होता है। सम्भवतः इसी के चलते नाना जी मन में एक आशा की किरण लिए एक बार फिर नवासे को पढ़ाने के लिए युक्तियां सोचने लग गए, जब कोई युक्ति दिमाग में नहीं आई तो उन्होंने निर्णय लिया कि अब से विजय अपनी मौसी के साथ घर पर ही पढ़ेगा, क्योंकि विजय जिन विद्यालयों को छोड़कर चुका था, उनमें तो उसे भेज पाना मुश्किल लग रहा था, और उस समय के विद्यालयों की स्थिति को देखते हुए नाना जी को यह भी लग रहा था कि पुनः उसी विद्यालयों में भेजने पर कहीं उन विद्यालयों में ऐसा न घटित हो जाए कि फिर डर की वजह से वह भविष्य में किसी भी विद्यालय में जाने से मना करने लग जाए। छोड़े हुए विद्यालयों के अतिरिक्त अन्य विद्यालय बहुत ज्यादा दूरी पर थे, जहाँ पैदल जा पाना मुश्किल था, और उस समय आज के परिवेश के अनुसार रिक्शा, आटो, गाड़ियां और बसें नहीं चलती थी। लम्बा मंथन करने के बाद नाना जी ने गाँव में रहने वाले गोवर्धन को पढ़ाने के लिए नियुक्त कर दिया, जो शरीर से भी गोवर्धन से कम नहीं लगते थे। उनका नाटा कद, हड़िया जैसा निकला हुआ पेट, सिर पर रेगिस्तान जैसी चमक, और सोने पर सुहागा यह था कि हंसी मजाक करने के जबरदस्त आदी थे, खुद भी हस्ते और दूसरे लोगों को भी हंसाते रहने की आदत सी थी, वह ही पूरे गाँव में अकेले ऐसे शक्स थे, जो थोड़ा बहुत पढ़े लिखे थे, और आने जाने में भी स्वभाव की वजह से दिक्कत नहीं थी। वह नाना जी को चाचा जी कहते थे। इसलिए वे विजय के रिश्ते में मामा लगते थे। गोवर्धन जब भी नाना के घर आता था वह विजय से भी हंसी ठिठोली से बाज नहीं आता था, वह विजय और उसकी मौसी को चिढ़ाता रहता था। इसलिए विजय और उसकी मौसी को वह पसंद नहीं था, पर नाना जी ने उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। इसलिए उस समय विरोध नहीं किया था, पर मन से दोनों गोवर्धन को पचा नहीं पाए थे। इसलिए जब आज गोवर्धन पढ़ाने के लिए आया तो उस समय पढ़ने की कोई सामग्री तैयार नहीं थी। खैर नानी जी ने स्थिति को देखते हुए गोवर्धन, विजय और उसकी मौसी के बैठने के लिए पल्लियां बिछा दी थी। परंतु दोनों अनिच्छुक, नटखट छात्र पाटी, बस्ता और डिबिया ढूंढने में वक्त जाया कर रहे थे। दोनों के इस काम में विजय की बड़ी मौसी ने मदद की जैसे तैसे सारी वस्तुएँ इकट्ठी हुई। यह सब देखकर नाना जी से रहा नहीं गया आखिर वह बोल ही उठे “यह सब नालायक हैं, इन्हें जब मालुम था आज पढ़ाने आएंगे तो यह सब अपनी सारी चीजें पहले ही ढूंढ के नहीं रख सकते थे। ” इतना सुनते ही नानी जी भी बोल पड़ी कि “हमने इन सबसे दिन में ही कहा था सब तैयार रखना, पर इन दोनों को खेल के आगे कुछ याद भी रहता है, इनका सबका पढने का मन ही नहीं होता है। ” इतना सुनते ही नाना जी ने विजय और उसकी मौसी को छोड़ दिया और नानी जी पर बरस पड़े, ये सब खेल रहे थे, तुम देख नहीं सकती थी, सब पहले से ठीक करके रखती।” अब चूंकि डांट डपट का पूरा कोटा नाना नानी ही पूरा कर चुके थे, तो पता नहीं कैसे बात-बात में विजय और उसकी मौसी की टांग खींचने वाला गोवर्धन शान्त रह गया?पर वह मुस्कराने से बाज नहीं आया था, उसे देख कर ऐसे लग रहा था, जैसे वह इस समय भी चिढ़ा रहे हों। खैर अब सब वस्तुएँ मिल चुकी थी, परन्तु यह क्या पाटियां तो साफ ही नहीं थी। गोवर्धन ने तुरंत साफ कर लाने के लिए कहा, अब तक सबकी सुन रहा और गोवर्धन की कटीली मुस्कान देखकर विजय अपने मन में कुछ और ही ठान चुका था। वह फटाफट उठा और दोनों पाटियों को कागज अथवा कपड़े से साफ करने के बजाय नल से धो लाया। यह देखकर गोवर्धन चिल्लाया “यह क्या किया बेवकूफ अब इस पर खड़िया कैसे चलेगी, यह तो गीली हो गई।” जानबूझकर यह काम करने वाला विजय बड़ी मासूमियत से बोला “आपने ही तो कहा था कि अच्छे से साफ कर लाओ, कोयला घुला हुआ नहीं था, तो हम पानी से ही धुल लाये” खैर क्या हो सकता था पाटियां सूखने के लिए रख दी गई, और आज ऐसे ही पढ़ाया गया। 1,2,3 और अ, आ और छुट्टी बोल दी गई। अगले दिन फिर नियत समय पर गोवर्धन पढ़ाने पहुँचा। आज सब कुछ नानी जी और मौसी जी ने ठीक करके रखा था। बैठने के लिए पल्लियां बिछी हुई थी। पाटियां कोयला लगी हुई थी, और घिट कर चमकाई हुई भी थी, और खड़िया एक बड़ी सीसी में घुली हुई भी रखी थी। पर आज विजय ने सूखी खड़िया गायब कर दी थी। आज बगल में बस्ता और दोनों हाथों में दोनों पाटियां, उन्ही दोनों हाथों में से एक में जबरदस्ती खड़िया की बड़ी सीसी दबाकर चला, और चलते चलते आंगन में रखी ईंट पर सीसी जानबूझकर छोड़ दी, फिर क्या था? हांथ से छूटते ही सीसी टूट चुकी थी। विजय ने अवाक रह जाने का अभिनय किया। खैर उसका अभिनय काम कर गया, उसकी मासूमियत को लिए चेहरे को देखकर सब ने कहा “कोई बात नहीं जाओ बैठ जाओ, इतनी सारी चीजें लेकर चलने की क्या जरूरत थी। विजय अंदर ही अंदर मुस्कराते हुए मुंह लटकाकर बैठ गया। गोवर्धन ने कहा ” सूखी खड़िया ले आओ फिर से पीस कर घोल देते हैं। पर पहले ही छुपा चुके खड़िया को ढूंढने के लिए दोनों उठे पर बड़ी मौसी ने रोक दिया कहा तुम सब बैठो हम ढूंढ लाते हैं। वह अंदर गई खड़िया ढूंढी पर नहीं मिली। यह देखकर पीछे से विजय भी पहुँच गया, और काफी देर ढूंढने के नाम पर समय बर्बाद करने वाले विजय ने आखिर अपना माथा ठोका और बोला “अरे मौसी अब याद आया खड़िया तो थोड़ी ही बची थी वह हमने पीस कर सीसी में डाल ली थी। गोवर्धन व अन्य लोगों सहित मौसी को भी गुस्सा आया, पर अगले ही पल उनके चेहरे पर मुस्कान तैर गई, उन्हें शायद शक हो गया था कि यह शरारत विजय और छोटी की ही है। बड़बड़ाते हुए नानी दुकान पर खड़िया लेने चली गई, तबतक समय खिसकता देख आज फिर 1,2,3 और अ, आ पढ़ाकर छुट्टी बोल दी गई। इसी तरह प्रतिदिन अठखेलियाँ हो रही थी, गोवर्धन, नाना, नानी डांट डपट कर किसी तरह पढ़ाने का प्रयत्न कर रहे थे, पर उन दोनों को तो गोवर्धन पसंद ही नही था। इसलिए प्रतिदिन कोई न कोई बहाना करके पिंड छुड़ाने का प्रयत्न करते, कभी खड़िया गायब, कभी सेंठा वाली कलम गायब, कभी जबरदस्ती नींद आने का नाटक, कभी टट्टी, पेशाब जाने का नाटक हर कोई समझाने का प्रयत्न कर रहा था, परन्तु वे थे कि समझने का नाम ही नहीं ले रहे थे, मार कोई सकता नहीं था आखिर घर के वे दोनों दुलारे थे। एक दिन तो गजब ही हो गया जब दोनों ने मिलकर सारी डिबियों का तेल ही निकाल दिया सिर्फ थोड़ा ही रखा, जिससे गोवर्धन के आने तक रोशनी होती रहे। आज डिबिया शाम के समय जलाया भी छोटी ही ने था, उन दोनों ने मिलकर बाकी तेल की पिपिया जिसमें कम ही तेल बचा था में पानी डाल दिया। फिर क्या था जैसे गोवर्धन आए कुछ देर बैठे डिबिया बुझ गयी, फिर आज नाना बड़बड़ा रहे थे, खैर आनन फानन में डिबियों में तेल डाला गया पर यह क्या वह तो जल ही नहीं रही। अब तो कोटेदार कोसा जाने लगा कि उसने ही तेल में पानी मिलाकर दिया होगा आखिर में पानी-पानी बचा है। इसलिए जल नहीं रहा है, आज नटखट बच्चों की गलतियों पर कोटेदार जमकर गालियाँ खा रहा था, और खाता भी क्यों न हर बार शक्कर और तेल कम ही मिलता था, क्योंकि नानी कोंटे से लाने के बाद तौलती जरूर थी, क्योंकि उन्हें भी अगली बार कोटेदार को लटीपटी जो सुनानी रहती थी। अब तो अंधेरे में रात गुजरने की स्थिति आ गई थी, क्योंकि नाना नानी को मांगना पसंद नहीं था, और दुकान पास में थी नहीं। खैर एक बड़े दिए में सरसों का तेल डालकर रोशनी का इंतजाम किया जो पढ़ाई करने के लिए नाकाफी लग रहा था। आज तो गोवर्धन दांत पीस कर किटकिटा रहा था, विजय और छोटी की हरदिन की हरकतों को देख कर उसे बखूबी समझ आ गया था कि यह सब जानबूझकर किया जा रहा है। पर मार नहीं सकते थे, क्योंकि रिश्ते में मामा लगते थे। उस समय रिश्तों की अहमियत आज के समय से ज्यादा थी, लोग रिश्तों भावनाओं को तरजीह ज्यादा देते थे। दूसरों पर हंसने और सबको हंसाने वाला आज गोवर्धन अपने आप को हंसी का पात्र समझ रहा था, उसने काम का बहाना बनाते हुए पढ़ाना छोड़ दिया था। आज विजय व उसकी मौसी के नटखट स्वभाव के चलते एक बार फिर दोनों पढ़ाई से दूर हो गए थे।
✍✍ रमेश कुमार, लेखक वन एवं वन्य जीव प्रेमी, दुधवा टाइगर रिजर्व प्रभाग पलिया लखीमपुर खीरी।
👉बच्चों की चंचलता और नटखटपन को बढ़ावा देना बच्चों के भविष्य के लिए हो सकता है खतरनाक
👉 बेहतर भविष्य के लिए समझाना और डांटना भी है जरूरी
👉अध्यापक ही भविष्य निर्माता हैं, नहीं होना चाहिए किसी भी दशा में अपमान













